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गुरुवार, 1 मई 2014

परशुराम जयन्ती पर एक रहस्यमय प्रसंग ...

 परशुराम जयन्ती पर एक रहस्यमय प्रसंग ...
..... अक्सर लोग प्रश्न उठाते हैं कि ब्राह्मण होकर भी भगवान् परशुराम में क्षत्रियोचित गुण का आधिक्य क्यों था ?
..... एक क्षत्रिय राजा थे , उनके केवल एक पुत्री संतान थी . उनके राज्य में एक ' ऋचीक ' नाम के ऋषि रहते थे . राजा ने ऋषि से निवेदन करके अपनी पुत्री का विवाह उनसे कर दिया . विवाह के पश्चात राजा की पत्नी ने अपनी पुत्री ( ऋषि पत्नी ) से कहा कि हे ! पुत्री जब आपके पति अपने लिए पुत्र की कामना से यज्ञ करें तो इनसे निवेदन करके मेरे लिए भी एक पुत्र का वरदान मांग लेना , पुत्री ने कहा ठीक है .
.....कालान्तर में जब ऋषि ने पुत्र की कामना से यज्ञ किया तो इनकी पत्नी ने अपनी माता का सन्देश उन्हें दिया .
..... ऋषि ने कहा एवमस्तु . तत्पश्चात ऋषि ने दो हांडी में खीर पकाई , और एक हांडी अपनी पत्नी को दी और कहा कि यह खीर तुम बरगद के वृक्ष के नीचे जाकर खा लेना , और यह दूसरी हांडी की खीर अपनी माता को दे देना और कहना कि वे पीपल के वृक्ष के नीचे बैठ कर यह खीर खा लें .
..... ऋषि पत्नी ने विचार किया कि , माता के घर चलकर दोनों लोग खीर खायेंगे .
..... जब वह माता के घर पहुँची तो माता ने कहा कि पुत्री तुम्हारे तो और भी पुत्र हो जायेंगे , मेरे केवल यही एक होगा , और तुम्हारे पति ने अपने लिए श्रेष्ठ पुत्र की कामना से खीर बनायी होगी , अत: हम लोग खीर आपस में बदल लेते हैं .
..... ऋषि पत्नी ने यह बात मान ली , और खीर की हांडी बदल कर ऋषि पत्नी ने माता वाली खीर पीपल के नीचे , और माता ने ऋषि पत्नी वाली खीर बरगद के नीचे खाली .
.....कालान्तर में दोनों गर्भवती हुई , ऋषि ने जब अपनी पत्नी का मुख और शरीर देखा तो कहा कि कुछ बदलाव है और उन्होंने खीर वाली बात पूछी , तब ऋषि पत्नी ने सब सही बता दिया . तब ऋषि बोले यह तो बड़ा अनर्थ हो गया , क्योंकि मैंने आपकी माता के लिए क्षत्रिय गुण-धर्म से विभूषित खीर बनायी थी और आपके लिए ब्राह्मण गुण-धर्म से विभूषित , ऐसा सुन कर ऋषि पत्नी दुखी हो गयी , और बोली इस बात से मुक्ति कैसे मिले .
.....तब ऋषि ने कहा कि अब मैं कुछ नहीं कर सकता , तब ऋषि पत्नी ने विलाप शुरू कर दिया .
.....अंत में ऋषि ने कहा कि , जो मैंने अपने तपोबल से खीर बनायी थी उसका असर तो समाप्त नहीं होगा , लेकिन मैं ऐसा कर सकता हूँ , इस पीढी में तो हमारे यहाँ ब्राह्मण गुण-धर्म से विभूषित पुत्र होगा , और आपकी माता के यहाँ क्षत्रिय गुण-धर्म से विभूषित पुत्र होगा , किन्तु अगली पीढी में वह गुण-धर्म बदल जाएगा और अपने यहाँ जो हमारा पौत्र होगा वह क्षत्रिय गुण -धर्म वाला , और आपकी माता के यहाँ उनका पौत्र ब्राह्मण गुण-धर्म वाला होगा ...ऋषि पत्नी ने कहा  ठीक है ऐसा मुझे स्वीकार है .
..... इसी के फलस्वरूप राजा के यहाँ ' गाधि ' नामक पुत्र हुए , और ऋषि के यहाँ ' जमदग्नि ' हुए और अगली पीढी में गाधि के पुत्र 'विश्वामित्र ' हुए जो ब्रह्म बल की प्राप्ति के लिए सदैव प्रयत्नशील रहे , और ब्राह्मणोंचित गुण धर्म वाले थे ...और ऋषि पुत्र जमदग्नि के यहाँ परशुराम जी का जन्म हुआ जो क्षत्रिय गुण-धर्म वाले थे....
...... यह एक पौराणिक कथानक है , याद आ गया, सो आज श्री परशुराम जयन्ती के शुभ अवसर पर लिख दिया....
..... जय परशुराम...

गुरुवार, 22 अगस्त 2013

......... जय श्री योगीश्वर कृष्ण .............

......... योग बुद्धि की प्रशंसा ......... 

......... जय श्री योगीश्वर कृष्ण .............

..... बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते |
..... तस्माद्योगाय युज्यस्व योग: कर्मसु कौशलं|| ..... गीता अध्याय २| श्लोक ५० ||
..... जो बुद्धियोग चित्त की समता से कर्म करता है , वह अपने पुण्य - पाप दोनों को इसी लोक में छोड़ देता है . इसलिए तू योग की चेष्टा कर ; क्योंकि कामों के बीच में ' योग' अत्यंत बलवान है |
..... जो सिद्धि-असिद्धि में समभाव रखकर कर्म करता है , उसका चित्त समत्व बुद्धि से शुद्ध  हो जाता है . चित्त के शुद्ध होने पर ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है . ज्ञान से पुण्य-पाप इसी दुनिया में छूट जाते हैं . तात्पर्य यह है कि , चित्त की समता वाला अपने योगबल से पुण्य-पाप दोनों से इसी लोक में पीछा छुडा लेता है . कर्मों के बीच में योग ही करामाती है . क्योंकि जो कर्म बंधन-स्वरुप है , वही जब चित्त की समता -योगबुद्धि से किये जाते हैं, तब वह बंधन छुडाने वाले हो जाते हैं. यानी जो कर्म मनुष्य को संसार-बंधन में फंसाते हैं , वे ही कर्मयोग के बल से , बलवान होकर , मनुष्य के हृदय में ज्ञान जागृत करके , संसार-बंधन से छुडा देते हैं ...इसलिए अर्जुन तू योगी हो ........  
..... खुलासा यह है कि सुख -दुःख और सब प्रकार की लाभ हानि को एक समान समझने वाला मनुष्य , क्या इस लोक और क्या परलोक में , कभी पाप-पुण्य का भागी नहीं होता ; वह जिस प्रकार अच्छे कर्म कर पुण्य की आशा छोड़ देता है ; उसी प्रकार यदि उसके द्वारा कोई बुरा कार्य हो जाय , तो उसका पाप उसे नहीं लगता . इसलिए तुम सुख -दुःख का विचार छोड़ कर , दोनों को एक सा समझो . सुख-दुःख , लाभ-हानि , जय -पराजय आदि को सामान समझना ही 'योग' है . जो इनको समान समझता हुआ कर्म करता है , उसके किये हुए पुण्य-पाप इसी लोक में छूट जाते हैं .

सोमवार, 27 अगस्त 2012

!! श्री गुरवे नमः !!


अखण्ड-मण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम् !
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः !!
अनेक-जन्म-सम्प्राप्त कर्म-बन्ध-विदाहिने !
आत्मज्ञान-प्रदानेन तस्मै श्री गुरवे नमः !!

रविवार, 26 अगस्त 2012

विजय विचार


    मेरे परम प्रिय साथियों,  शुभचिंतकों अब इस विजय विचार नाम के ब्लॉग पर मैं आपको कुछ अपने विचारों से एवं ऐसे तथ्यों से अवगत कराने का प्रयास करूँगा , जो मैंने अपने बाबा जी , गुरु जनों , माता , पिता एवं समाज में घटित घटनाओं से प्रभावित होकर  चिंतन और मनन किया है | 

प्रारब्ध ( भाग्य ) बड़ा या पुरुषार्थ ( कर्म )


.............एक प्रश्न फेस बुक पर चर्चित है.....
     प्रारब्ध ( भाग्य ) बड़ा या पुरुषार्थ ( कर्म ) ...इस विषय में बहुत शंकाए है ....
     इसके लिए सर्व प्रथम हमें यह जान लेना चाहिए कि प्रारब्ध और पुरुषार्थ क्या है ?
     मानव में ४ प्रकार की चाहना होती है. १- अर्थ , २- धर्म, ३- काम , ४- मोक्ष ...
     १- अर्थ - धन को ही अर्थ कहते है यह दो प्रकार का होता है , ( अ ) स्थावर ( ब) जंगम ..
स्थावर में सोना , चांदी , रूपये , जमीन , जायदाद , मकान आदि आते है ....
     जंगम में , गाय, भैंस , अन्य पशु आदि आते है....
    २- धर्म- सकाम या निष्काम भाव से जो भी यज्ञ , जप, तप, दान , स्नान , तीर्थ आदि कृत्य आते है .....
    ३- काम - सांसारिक सुख भोग को काम कहते है, यह सुख - विलास ८ प्रकार का होता है ...
     ( क ) शब्द - यह २ प्रकार का होता है वर्णात्मक और ध्वन्यात्मक . जिसमे व्याकरण , कोष , साहित्य , उपन्यास , गल्प , कहानी आदि वर्णात्मक में आते है ..और खाल , तार और फूंक के तीन प्रकार के वाद्य यंत्र और ताल का आधा बाजा , यह साडे तीन प्रकार के बाजे ध्वन्यात्मक में आते है ....इन वर्णात्मक और ध्वन्यात्मक को सुनने से जो सुख मिलता है वह शब्द सुख है .
     ( ख ) स्पर्श - स्त्री , पुत्र , मित्र आदि के साथ मिलाने पर उनके त्वचा स्पर्श से जो सुख मिलता है वह स्पर्श सुख है ...
     ( ग ) रूप - पहाड़ , सरोवर , सागर , सिनेमा , टेलीविजन, बाग- बगीचा , सुन्दर स्त्री / पुरुष आदि की सुंदरता को देख कर जो सुख नेत्रों से मिलता है उसे रूप सुख कहते है...
     ( घ ) रस - मीठा , खट्टा , नमकीन , कडुवा , तीखा और कसैला इन ६ प्रकार के रसों को चखने या खाने से जो सुख मिलता है उसे रस सुख कहते है...
     ( च ) गंध - नाक से इत्र , पुष्प , तेल आदि सुगन्धित और प्याज, लहसुन आदि के सूंघने से जो सुख मिलता है उसे गंध सुख कहते है ....
     ( छ) मान - शरीर का आदर सत्कार होने से जो सुख ,मिलता है , उसे मान सुख कहते है ...
     ( ज ) बडाई - नाम की प्रशंसा , वाह वाही होने से जो सुख मिलता है उसे बडाई या प्रशंसा सुख कहते है...
     ( झ ) आराम - सोने से , मालिश से , जो सुख मिलता है उसे आराम सुख कहते है ..
     ४-मोक्ष - आत्मसाक्षात्कार , तत्व ज्ञान , भगवद दर्शन , भगवत प्रेम , कल्याण , मुक्ति आदि का साधन और नाम ही मोक्ष है ...
इन चारों १- अर्थ , २- धर्म, ३- काम , ४- मोक्ष में अर्थ और धर्म दोनों परस्पर एक दूसरे की वृद्धि करते है ...
     इन चार में १- अर्थ , २- धर्म, ३- काम , ४- मोक्ष
     अर्थ , और काम ,की प्राप्ति में प्रारब्ध ( भाग्य ) की मुख्यता है ..अर्थात यह दोनों भाग्य वश पूर्व के प्रारब्ध वश ही न्यूनाधिक प्राप्त होते है ..इन २ में भाग्य ( प्रारब्ध ) की मुख्यता और पुरुषार्थ की गौणता है ..यहाँ पुरुषार्थ का कोई जोर नहीं ...
     धर्म और मोक्ष इन दोनों में पुरुषार्थ की मुख्यता और प्रारब्ध की गौणता है ..
    प्रारब्ध और पुरुषार्थ दोनों का क्षेत्र अलग अलग है और दोनों अपने क्षेत्र में प्रधान है ...
     अब एक गहन बात ...
     सृष्टि में जो भी मानव सर्व प्रथम जन्मा होगा ...वह सब कुछ ( प्रारब्ध वश ) लेकर ही जन्मा होगा ..क्योंकि तब उसके पास पुरुषार्थ दिखाने का समय ही नहीं रहा होगा ...
     अत: बड़ा भाई प्रारब्ध ( भाग्य ) और छोटा भाई ( पुरुषार्थ )...
आत्मीयों मेरी सामान्य बुद्धि में जो स्मृति में था लिख दिया ..कोई त्रुटि हो तो सुधार लीजियेगा और मुझ अकिंचन को क्षमा कीजियेगा ....

॥ दुर्गाष्टोत्तरशतनामस्तोत्रम् (विश्वसारतन्त्र) ॥


मेरे आत्मीय बंधुओं , आपको शुभ कामनाओं के साथ एक दुर्लभ योग की जानकारी दे रहा हूँ....लाभान्वित हो...
...प्रिय बंधुओं , भौमवती ( मंगलवारी ) अमावस्या को अर्धरात्रि में जब चन्द्रमा शतभिषा नक्षत्र में हो , उस समय इस स्तोत्र को गोरोचन , लाक्षा ( पीपल की लाख ) , कुंकुम , सिन्दूर , कपूर , गोघृत व गो दुग्ध , चीनी , शहद . इन समस्त पदार्थों को एकत्र कर के इनकी स्याही बना कर , भोज पत्र पर सोने या अनार की कलम से लिख कर , चांदी या सोने के ताबीज में भर कर जो प्राणी धारण करता है वह शिव तुल्य हो जाता है. एवं सम्पत्तिशाली होता है. दैहिक , दैविक, भौतिक इन त्रय तापों से मुक्ति मिलती है. दरिद्रता का नाश होता है. यह एक दुर्लभ योग है. मूलत: इसका इसका उल्लेख विश्वसार तंत्र में है ..गीता प्रेस, गोरखपुर की छपी श्री दुर्गा सप्तशती में पृष्ठ ९ -११ पर भी उल्लेख है..जो बंधु इसका लाभ उठाना चाहे वह इसका निर्माण कर लेन या योग्य पंडित जी से करा ले...
....इस वर्ष यह योग श्री शुभ संवत २०६८ , फागुन कृष्ण अमावस्या , मंगलवार , अंगरेजी तारीखानुसार २१ व २२ फरवरी २०१२ की मध्य रात्रि को रात्रि १२ / २२ से रात्रि चार बजकर ०७ मिनट तक रहेगा .
....इसमें महानिशीथ काल का संयोग भी १२/२२ से १२/४१ तक रहेगा ....
....२१ व २२ फरवरी २०१२ की मध्य रात्रि को रात्रि १२ / २२ से रात्रि चार बजकर ०७ मिनट के बीच इसका निर्माण करे.....
.....स्तोत्र इस प्रकार है, लिखने में कुछ त्रुटि हो सकती है, क्योंकि कुछ अक्षर नहीं बनते है, अत: श्री दुर्गा सप्तशती खरीद कर वहाँ से लिखे.....
....॥ दुर्गाष्टोत्तरशतनामस्तोत्रम् (विश्वसारतन्त्र) ॥

॥ ॐ ॥

॥ श्री दुर्गायै नमः ॥

॥ श्री दुर्गाष्टोत्तरशतनामस्तोत्रम् ॥

॥ ईश्वर उवाच ॥

शतनाम प्रवक्ष्यामि शृणुष्व कमलानने ।
यस्य प्रसादमात्रेण दुर्गा प्रीता भवेत् सती ॥ 1 ॥

ॐ सती साध्वी भवप्रीता भवानी भवमोचनी ।
आर्या दुर्गा जया चाद्या त्रिनेत्रा शूलधारिणी ॥ 2 ॥

पिनाकधारिणी चित्रा चण्डघण्टा महातपाः ।
मनो बुद्धिरहंकारा चित्तरूपा चिता चितिः ॥ 3 ॥

सर्वमन्त्रमयी सत्ता सत्यानन्द स्वरूपिणी ।
अनन्ता भाविनी भाव्या भव्याभव्या सदागतिः ॥ 4 ॥

शाम्भवी देवमाता च चिन्ता रत्नप्रिया सदा ।
सर्वविद्या दक्षकन्या दक्षयज्ञविनाशिनी ॥ 5 ॥

अपर्णानेकवर्णा च पाटला पाटलावती ।
पट्टाम्बरपरिधाना कलमञ्जरीरञ्जिनी ॥ 6 ॥

अमेयविक्रमा क्रूरा सुन्दरी सुरसुन्दरी ।
वनदुर्गा च मातङ्गी मतङ्गमुनिपूजिता ॥ 7 ॥

ब्राह्मी माहेश्वरी चैन्द्री कौमारी वैष्णवी तथा ।
चामुण्डा चैव वाराही लक्ष्मीश्च पुरुषाकृतिः ॥ 8 ॥

विमलोत्कर्षिणी ज्ञाना क्रिया नित्या च बुद्धिदा ।
बहुला बहुलप्रेमा सर्ववाहन वाहना ॥ 9 ॥

निशुम्भशुम्भहननी महिषासुरमर्दिनी ।
मधुकैटभहन्त्री च चण्डमुण्डविनाशिनी ॥ 10 ॥

सर्वासुरविनाशा च सर्वदानवघातिनी ।
सर्वशास्त्रमयी सत्या सर्वास्त्रधारिणी तथा ॥ 11 ॥

अनेकशस्त्रहस्ता च अनेकास्त्रस्य धारिणी ।
कुमारी चैककन्या च कैशोरी युवती यतिः ॥ 12 ॥

अप्रौढ़ा चैव प्रौढ़ा च वृद्धमाता बलप्रदा ।
महोदरी मुक्तकेशी घोररूपा महाबला ॥ 13 ॥

अग्निज्वाला रौद्रमुखी कालरात्रिस्तपस्विनी ।
नारायणी भद्रकाली विष्णुमाया जलोदरी ॥ 14 ॥

शिवदूती कराली च अनन्ता परमेश्वरी ।
कात्यायनी च सावित्री प्रत्यक्षा ब्रह्मवादिनी ॥ 15 ॥

य इदं प्रपठेन्नित्यं दुर्गानामशताष्टकम् ।
नासाध्यं विद्यते देवि त्रिषु लोकेषु पार्वति ॥ 16 ॥

धनं धान्यं सुतं जायां हयं हस्तिनमेव च ।
चतुर्वर्गं तथा चान्ते लभेन्मुक्तिं च शाश्वतीम् ॥ 17 ॥

कुमारीं पूजयित्वा तु ध्यात्वा देवीं सुरेश्वरीम् ।
पूजयेत् परया भक्त्या पठेन्नामशताष्टकम् ॥ 18 ॥

तस्य सिद्धिर्भवेद् देवि सर्वैः सुरवरैरपि ।
राजानो दासतां यान्ति राज्यश्रियमवाप्नुयात् ॥ 19 ॥

गोरोचनालक्तककुङ्कुमेव सिन्धूरकर्पूरमधुत्रयेण ।
विलिख्य यन्त्रं विधिना विधिज्ञो भवेत् सदा धारयते पुरारिः ॥ 20 ॥

भौमावास्यानिशामग्रे चन्द्रे शतभिषां गते ।
विलिख्य प्रपठेत् स्तोत्रं स भवेत् संपदां पदम् ॥ 21 ॥

ज्योतिष शास्त्र आलेख संख्या - ००२


....................ज्योतिष शास्त्र  आलेख संख्या - ००२ .....................
सर्वप्रथम आप यह जान ले कि पंचांग किसे कहते है , पंचांग के पांच अंग है, १- तिथि २- वार ,३- नक्षत्र , ४- योग , ५- करण ..इन पांच का जिससे ज्ञान होता है उसे पंचांग कहते है .
..... सम्पूर्ण भचक्र , ३६० अंशों में विभाजित है .
..... ३६० अंश = १२ राशियाँ = २७ नक्षत्र .
..... १ राशि = ३० अंश = सवा दो नक्षत्र = ९ चरण .
..... १ नक्षत्र = ४ चरण = १३ सही १/३ अंश = ८०० कला .
..... १ चरण = ३ सही १/३ अंश = २०० कला , १ अंश =६० कला .
..... १ कला = ६० विकला , १ विकला = ६० प्रतिविकला .
................................समय विभाग .....
..... ६० अनुपल = १ विपल .
..... ६० विपल = १ पल .
..... ढाई पल या ६० सेकेण्ड = १ मिनट .
.... ६० पल = २४ मिनट या १ घटी ( घड़ी).
..... ढाई घटी = १ घंटा .
..... साढ़े सात घटी = ३ घंटे या एक पहर .
..... ८ पहर = ६० घटी या २४ घंटे = एक दिन रात इसे ही अहोरात्र कहते है.
..... १५ अहोरात्र = १ पक्ष .
..... २ पक्ष= १ मास .
.....१२ मास= १ वर्ष .
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नौ ग्रह = १- सूर्य , २- चंद्र , ३- मंगल, ४ - बुध , ५- गुरु, ६- शुक्र , ७- शनि , ८- राहू , ९- केतु .
इसके अलावा हर्शल, नेप्च्यून , प्लूटो है मगर भारतीय ज्योतिषी प्राय: इनकी गणना नहीं करते , लेकिन यहाँ इन की भी विवेचना होगी .
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.... १२ राशियाँ - १- मेष २- वृष ३- मिथुन ४- कर्क ५- सिंह ६- कन्या ७- तुला ८- वृश्चिक ९- धनु १०- मकर ११- कुम्भ १२- मीन .
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..... २७ नक्षत्र - १- अश्विनी २- भरणी ३- कृत्तिका ४-रोहिणी ५- मृगशिरा ६- आर्द्रा ७ - पुनर्वसु ८- पुष्य ९ - आश्लेषा १० - मघा ११- पूर्वाफाल्गुनी १२ -उत्तराफाल्गुनी १३ - हस्त १४- चित्रा १५- स्वाती १६ - विशाखा १७ - अनुराधा १८- ज्येष्ठा १९- मूल २०- पूर्वाषाढा २१- उत्तराषाढा २२- श्रवण २३- धनिष्ठा २४ - शतभिषा २५- पूर्वाभाद्रपद २६- उत्तराभाद्रपद २७- रेवती .
....२८ वाँ - अभिजीत होता है लेकिन मुख्य गणना में २७ ही आते है ..अभिजीत का मान उत्तराषाढा नक्षत्र के चौथे चरण से लेकर श्रवण के पहले १५ वें भाग तक रहता है .
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....आप सभी लोग ग्रह , नक्षत्र , राशि, को क्रमश: याद कर ले..इतना ध्यान रहे कि इन्हें अपनी उँगलियों के पोरों पर गिन कर याद करे तो बेहतर होगा ..
..... १ उंगली = ३ पोर , ४ उंगली = १२ पोर . और २७ पोर = एक भचक्र या २७ नक्षत्र ..
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१- अश्विनी ( कनिष्ठिका १ पोर)
२- भरणी ( कनिष्ठिका २ पोर)
३- कृत्तिका ( कनिष्ठिका ३ पोर)
४-रोहिणी ( अनामिका १ पोर)
५- मृगशिरा ( अनामिका २ पोर)
६- आर्द्रा ( अनामिका ३ पोर)
७ - पुनर्वसु ( मध्यमा १ पोर)
८- पुष्य ( मध्यमा २ पोर)
९ - आश्लेषा ( मध्यमा ३ पोर)
१० - मघा ( तर्जनी १ पोर)
११- पूर्वाफाल्गुनी ( तर्जनी २ पोर)
१२ -उत्तराफाल्गुनी ( तर्जनी ३ पोर)
१३ - हस्त ( कनिष्ठिका १ पोर)
१४- चित्रा ( कनिष्ठिका २ पोर)
१५- स्वाती ( कनिष्ठिका ३ पोर)
१६ - विशाखा ( अनामिका १ पोर)
१७ - अनुराधा ( अनामिका २ पोर)
१८- ज्येष्ठा ( अनामिका ३ पोर)
१९- मूल ( मध्यमा १ पोर)
२०- पूर्वाषाढा ( मध्यमा २ पोर)
२१- उत्तराषाढा ( मध्यमा ३ पोर)
२२- श्रवण ( तर्जनी १ पोर)
२३- धनिष्ठा ( तर्जनी २ पोर)
२४ - शतभिषा ( तर्जनी ३ पोर)
२५- पूर्वाभाद्रपद ( कनिष्ठिका १ पोर)
२६- उत्तराभाद्रपद ( कनिष्ठिका २ पोर)
२७- रेवती ( कनिष्ठिका ३ पोर) .
...नोट - इस प्रकार याद करें ......