चाणक्य नीति कहती हैं कि -
अंतर्गतमलो दृष्टस्तीर्थस्नानशतैरपि .
न शुध्यति यथा भाण्डं सुराया दाहितं च यत् ..
अर्थात- जिसके मन में मैल भरा है ऐसा दुष्ट व्यक्ति चाहे कितनी बार भी तीर्थ पर जाकर स्नान कर लें पर पवित्र नहीं हो पाता जैसे मदिरा का पात्र आग में तपाये जाने पर भी पवित्र नहीं होता !
न दुर्जनः साधुदशामुपैति बहुप्रकारैरपि शिक्ष्यमाणः.
आमूलसिक्तः पयसा घृतेन न निम्बवृक्षो मधुरात्वमेति ..
अर्थात- दुष्ट व्यक्ति को कितना भी सिखाया या समझाया जाये पर वह अपना अभद्रता का व्यवहार नहीं छोड़कर सज्जन नहीं बन सकता जैसे नीम का वृक्ष, दूध और घी से सींचा जाये तो भी उसमें मधुरता नहीं आती .
अंतर्गतमलो दृष्टस्तीर्थस्नानशतैरपि .
न शुध्यति यथा भाण्डं सुराया दाहितं च यत् ..
अर्थात- जिसके मन में मैल भरा है ऐसा दुष्ट व्यक्ति चाहे कितनी बार भी तीर्थ पर जाकर स्नान कर लें पर पवित्र नहीं हो पाता जैसे मदिरा का पात्र आग में तपाये जाने पर भी पवित्र नहीं होता !
न दुर्जनः साधुदशामुपैति बहुप्रकारैरपि शिक्ष्यमाणः.
आमूलसिक्तः पयसा घृतेन न निम्बवृक्षो मधुरात्वमेति ..
अर्थात- दुष्ट व्यक्ति को कितना भी सिखाया या समझाया जाये पर वह अपना अभद्रता का व्यवहार नहीं छोड़कर सज्जन नहीं बन सकता जैसे नीम का वृक्ष, दूध और घी से सींचा जाये तो भी उसमें मधुरता नहीं आती .
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