सनातन संस्कृति जिसे मनु और शतरूपा के नाम से जानती है ...
दर्शन में उसे पुरुष और प्रकृति के नाम से जाना जाता है ....
ब्रह्म और माया के नाम से भी हम इन्हें पुकारते है ....
भाग्य ही विधाता है और शक्ति है कर्म रूपा ऊर्जा ....
पुरुष और प्रकृति ,यह दो है , इनमे से पुरुष में कभी परिवर्तन नहीं होता और प्रकृति कभी परिवर्तन रहित नहीं रहती , जब यह पुरुष प्रकृति के साथ सम्बन्ध जोड़ लेता है तब प्रकृति की क्रिया
पुरुष का "कर्म " बन जाती है क्योंकि प्रकृति के साथ सम्बन्ध मानने से
तादात्म्य हो जाता है ...
तादात्म्य होने से जो प्राकृत वस्तुए प्राप्त
है , उनमे आसक्ति ( ममता ) होती है और उस ममता के कारण अप्राप्त वस्तुओं
की कामना होती है ...
इस प्रकार जब तक कामना , ममता , और तादात्म्य रहता है , तब तक जो कुछ भी परिवर्तन रूप क्रिया होती है उसका नाम ही " कर्म" है....
कर्म ३ प्रकार प्रकार के होते है १ - क्रियमाण २- संचित ३- प्रारब्ध ....
वर्तमान में जो कर्म किये जाते है वे क्रियमाण के नाम से जाने जाते है ...
( गीता के अनुसार जो भी नए कर्म और उनके संस्कार बनाते है वे सब केवल मानव
योनी में ही बनाते है , पशु पक्षी आदि योनियों में नहीं , क्योंकि वह
योनियाँ केवल कर्मफल के भोग के लिए है )
वर्तमान से पूर्व इस जन्म में
किये हुए अथवा पहले के अनेक मनुष्य जन्मों में किये हुए जो कर्म संगृहीत है
वे संचित कर्म कहलाते है ...
संचित से जो कर्म फल देने के लिए
प्रस्तुत या उन्मुख हो गए है अर्थात जन्म , आयु , और अनुकूल - प्रतिकूल
परिस्थिति के रूप में परिणित होने के लिए सामने आ गए है वे प्रारब्ध कर्म
कहे जाते है .....
क्रियमाण कर्म दो प्रकार के होते है १- शुभ २- अशुभ ..
शुभ अथवा अशुभ प्रत्येक क्रियमाण कर्म का एक तो फल अंश बनता है और एक संस्कार अंश बनता है , यह दोनों भिन्न है .....
क्रियमाण कर्म के फल अंश से २ भेद है १- दृष्ट २- अदृष्ट ...
इसमें दृष्ट के २ भेद है १-तात्कालिक . २ - कालान्तरिक...
जैसे भोजन करते समय जो रस , स्वाद , सुख, प्रसन्नता और तृप्ति होती है यह दृष्ट का तात्कालिक फल है ....
भोजन के परिणामस्वरूप आयु , आरोग्य , बल , तेज आदि का बढ़ना यह दृष्ट का कालान्तारिक फल है..
कुल मिला कर भाग्य और कर्म ये दोनों एक दूसरे से जुड़े है ....
शर शय्या पर पड़े भीष्म पितामह श्री कृष्ण जी से पूछते है कि अपने
पिछले कुछ जन्मो में तो मैंने ऐसा कोई काम किया ही नहीं कि मुझे यह दारुण
दुःख सहना पड़े...तब श्री कृष्ण जी ने उनके पिछले ७ वें जन्म का दृश्य
उन्हें अपनी योगमाया से दिखाया कि भीष्म एक राजा थे और जंगल में जा रहे थे
रास्ते में एक सांप आ गया , तब पितामह ने धनुष की नोक से उस सांप को पीछे
उछाल दिया वह सांप एक बबूल के पेंड पर जा गिरा और ६ मास तक तडपता रहा ..६
मास बाद उसकी मृत्यु हुई ...मतलब भीष्म अपने पूर्व के ७ वें जन्म का फल भोग
रहे थे .
सार यह है कि भाग्य और कर्म का आपस में अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है ....
भाग्य से ही सुकर्म और कुकर्म करने की इच्छा मानव के मन में जन्म लेती है ....और सर्किल चला करता है .
Thank you
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